नई दिल्ली I हाल में देश-विदेश में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कई चौंकाने वाले वक्तव्य दिए। उन्होंने भीमा-कोरेगांव में हिंसा के षड्यंत्र पर चिंता न प्रकट करते हुए गिरफ्तार आरोपियों का बचाव किया। इसके पहले जर्मनी के हैम्बर्ग में उन्होंने सबसे कुख्यात आतंकी संगठन आइएस के जन्म के लिए बेरोजगारी और लोगों को विकास की प्रक्रिया में अलग-थलग करने के विचार को जिम्मेदार ठहराया। वहां से लंदन पहुंचकर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना कट्टरपंथी इस्लामी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से की।
अपने विचित्र बयानों के चलते कई बार उपहास का केंद्र बने राहुल गांधी के उपरोक्त वक्तव्यों को नजरअंदाज किया जा सकता है, किंतु उनका चिंतन संज्ञान लेने योग्य इसलिए हो जाता है, क्योंकि वह स्वतंत्र भारत में सर्वाधिक काल तक शासन करने वाले राजनीतिक दल के अध्यक्ष होने के साथ-साथ स्वयं को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं। भीमा-कोरेगांव हिंसा और प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्र संबंधी मामले में जैसे ही पांच संदिग्ध शहरी नक्सलियों की गिरफ्तारियां हुईं, एकाएक तथाकथित सेक्युलरिस्टों और वामपंथियों को मानो देश में ‘असहमति के अधिकार’ का गला फिर से घुटता हुआ दिखा।
राहुल भी इन गिरफ्तारियों के विरोध में खड़े नजर आए। इस पूरे घटनाक्रम में तथाकथित सेक्युलरिस्टों के साथ मीडिया के एक वर्ग की भूमिका भी संदिग्ध रही। कोई भी हत्यारा या फिर उसका साजिशकर्ता अपने अपराध के कारण जाना जाता है, न कि अपने किसी विशेष मुखौटे के कारण। गिरफ्तार आरोपियों के नक्सलियों से मिले होने का लंबा इतिहास रहा है। ऐसे षड्यंत्रकारियों को बुद्धिजीवी या फिर मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में परिभाषित करना कहां तक उचित है? राहुल गांधी समेत जो लोग इन संदिग्ध शहरी नक्सलियों की ढाल बन रहे हैैं वे उस समय क्यों चुप रहे जब इनमें से अरुण फरेरा और वेरनॉन गोंजाल्विस को संप्रगकाल में नक्सलियों के मददगार के रूप में गिरफ्तार किया गया था?
माओवादियों से साठगांठ के कारण वरवर राव भी पहले गिरफ्तार हो चुके हैं। नक्सलवाद विदेशी विचार, धन और बाहरी शक्तियों का खतरनाक संयोजन है, जो भारत को खंडित और अस्थिर करना चाहते हैं। इसमें चीन-पाकिस्तान की परोक्ष भूमिका है। अपनी सुविधानुसार और संयुक्त एजेंडे की पूर्ति हेतु इसमें विदेशी वित्तपोषित चर्च और इस्लामी कट्टरपंथी भी शामिल हो जाते हैं।
ये सभी भारत में गृहयुद्ध को मूर्त रूप देने हेतु गुमराह भारतीयों का ही उपयोग करते हैं और उन पिछड़े क्षेत्रों का रुख करते हैं जहां सरकार-प्रशासन की पहुंच सीमित है। अब वे शहरों में भी अपनी जड़ें मजबूत करना चाहते हैं। प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के 2004 में प्रकाशित ‘अर्बन पर्सपेक्टिव’ में इसका उल्लेख है। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलवाद को सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। क्या राहुल और स्वयंभू सेक्युलरिस्टों के लिए राजनीतिक विरोध और सत्ता का संघर्ष-राष्ट्रहित, देश की संप्रभुता और अखंडता से बड़ा हो गया है?
यह स्थापित सत्य है कि माओवादियों को न तो आदिवासियों के हितों की कोई चिंता है और न ही उनके मानवाधिकारों से कोई सरोकार। बात नक्सलवाद तक सीमित नहीं है। राहुल गांधी ने संघ की तुलना जिस मुस्लिम ब्रदरहुड से की उसका उन्हें इतिहास जानना चाहिए। यह मिस्र की सबसे पुरानी और बड़ी इस्लामी संस्था है जिसकी स्थापना 1928 में हसन अल-बन्ना ने की थी। उन्होंने राज्य, अर्थव्यवस्था और समाज के इस्लामीकरण की मांग की। अपने इस्लामी कट्टरवाद के कारण यह संगठन मिस्न सहित कई मुस्लिमों देशों में प्रतिबंधित है। इस पृष्ठभूमि में राहुल गांधी द्वारा मुस्लिम ब्रदरबुड से संघ की तुलना अकल्पनीय है।
वर्ष 1925 में अपनी स्थापना से आरएसएस ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि माना है। संघ का दृष्टिकोण प्रगतिशील और मजहबी कट्टरवाद के खिलाफ है। उसका विश्वास उर्स ंहदुत्व में है जो भारत के सनातन मूल्यों और बहुलतावादी दर्शन का सबसे बड़ा मूर्त रूप है। इसके अतिरिक्त संघ के कार्यकर्ता भारत में आई प्राकृतिक आपदाओं में भी नि:स्वार्थ भाव से पीड़ितों की सहायता हेतु सदैव आगे रहते हैं। राहुल गांधी के हालिया वक्तव्यों से इस्लामी कट्टरपंथी भले खुश हों, किंतु इससे देश की मूल संस्कृति, परंपराओं और इतिहास के प्रति उनकी बोध शक्ति पर संदेह और गहराता है। राहुल कहते हैं कि विकास की प्रकिया से लोगों को अलग-थलग रखने और बेरोजगारी के कारण आइएस जैसे आतंकी संगठनों का जन्म हो रहा है।
नि:संदेह भारतीय मुस्लिम समाज का एक वर्ग स्वयं को अलग-थलग पाता है, लेकिन इस प्रकार की स्थिति केवल भारत ही नहीं, अपितु यूरोपीय देशों, अमेरिका, चीन और साथ ही पाकिस्तान, इराक, अफगानिस्तान जैसे इस्लामी या मुस्लिम बहुल देशों के मुसलमानों के एक बड़े वर्ग की भी है। इसका एकमात्र कारण वह चिंतन है जिसमें अन्य मतों को झूठा बताया गया है। इसलिए वे न केवल किसी बहुलतावादी या गैर-इस्लामी समाज में, बल्कि इस्लामी समाज में भी स्वयं को अलग-थलग पाते हैं। अपने जीवनकाल में गांधीजी ने भी इस त्रासदी को झेला है। देश को अखंड रखने हेतु गांधीजी ने प्रथम विश्व युद्ध के समय खिलाफत आंदोलन का भारत में नेतृत्व किया था, क्योंकि उस समय अधिकांश मुस्लिम समाज स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा नहीं था। गांधीजी का प्रयास इस्लामी कट्टरवाद और मुस्लिम अलगाववाद के समक्ष बौना सिद्ध हुआ और 1947 में देश का रक्तरंजित विभाजन हो गया।
राहुल गांधी की नजर में आइएस का जन्म बेरोजगारी के कारण हुआ है। क्या इससे बड़ा झूठ कोई हो सकता है? आइएस एक सुन्नी आतंकी संगठन है। इसका गठन अबु मुसाब अल-जरकावी ने 1999 में जमात अल-तावीद-वाल-जिहाद के रूप में किया था। उसका घोषित एजेंडा ही गैर-इस्लामी और शिया मुस्लिमों के खिलाफ जिहाद है। आइएस जैसे सैकड़ों आतंकवादी संगठनों की उत्पत्ति का कारण कोई सामाजिक समस्या नहीं, अपितु इस्लाम का वह स्वरूप है जिसका एकमात्र उद्देश्य हिंसक जिहाद से विश्व का इस्लामीकरण करना है। इसी वैचारिक समानता के कारण कश्मीर में आतंकियों से सहानुभूति रखने वाले लोग अक्सर आइएस का झंडा लेकर उसके समर्थन में नारा बुलंद करते हैं।
वास्तव में आज संघर्ष दो विचारधाराओं के बीच है-जहां एक ओर संघ सहित कई संगठन भारत को संपन्न, संगठित और विश्व में सशक्त देखना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर चर्च के एक भाग, इस्लामी कट्टरपंथी और वामपंथी विदेशी शक्तियों के इशारे पर देश को 1947 की भांति पुन: खंडित करना चाहते हैं।
Post A Comment: